15 नवंबर 2011

vyatha

शेष ....
व्यथा
.....

सुरमई रश्मियाँ 
चूम बदन को 
चली गई पाल के साथ साथ 
तम की एक रेखा 
खिंच गई इस पार
उतर गई दिल में 
लकीर बन 
व्यथा 

vyatha

व्यथा
मैं  तट पर ही खड़ा  
रह गया
देखता रहा 
दूर जा रहे पाल को 
दूर दूर होता वह
व्यथा की लहर खींचता हुआ 
यह कैसी लहर थी ? 
मेरा मन ले  जाती 
पाल के साथ साथ 
पर लौटती 
व्यथा लिये साथ साथ 
चूम लेतीus मेरे पांव 
पीयुश्वर्शी बादल
छ्ल चले गये
रीता श्वेत बादल 
थमा गये 

13 नवंबर 2011

वे लोग 
जानते है
नदी पार करना 
नदी बन जाती है 
सहज सलौनी 
सहलाती है 
सूरज की किरणे
वे एक एक करके 
नदी पार करते गये
मैं रचना करते करते 
रह गया इस पार 
नितांत अकेला  


11 नवंबर 2011

Safal vah jo

   सफल वह जो
ढल गया
परिवेश के साथ
बहता हो
मौसमी हवाओं के साथ
लहरों  की गति के साथ
 बढती भीड़ के साथ
वह
वह है
जो भीड़ है
भीड़ का एक
 पुर्जा है
वह जो भेड़ है
भीड़ और भेड़
भला क्या अंतर दोनों में
चाल एक है दोनों की

सफल वह जो
हो जाता देखकर
 आदमी को उसका
अंतरात्मा से उसे क्या ?
उसे तो होना है सफल

सफल वह है
जो बातूनी  है
जो चिपका लेता हो हंसी होटों पर
उसे देखकर
जो उसका मसीहा है

पर मैं हूँ कि
भीड़ का आदमी
नहीं हो सकता

09 नवंबर 2011

 
हर पल आहत होती है नदी 
पल पल जहर पीकर 
मानव को तो दर्द नहीं है पर
नदी को तो दर्द होता है 
गन्दला विषैला जल 
ठीक मां की तरह 
जो पिलाती है बच्चे को दूध 
पूरा ममत्व  लुटाकर 
कैसे  पिलादे वह पूतना का दूध? 
नदी का तो स्वभाव है 
पावन निर्मल जल देना
अब वह जाये तो जाये कैसे
विषकन्या बन 
अपने ही सागर से मिलने ?




क्या उत्तर दे वह सागर सागर को ? 
किस मुंह से जाये वह सागर के पास ?
कीच  भरा जल लेकर 
वह तो  निकली थी पर्वत की गोद से
निर्मल जल मानव को पिलाने 
पर बहाये उसी मानव ने 
गंदले व्यर्थ विषैले द्रव्य 
 
 
                                   नदी की व्यथा 

न जाने नदी को क्या हुआ ? 
क्यों बह रही है उदास उदास
मैंने सटाया उसकी कल कल से कान
तो  जाना कलकल की ओट से
बह रही है नदी बोझिल मन से
अब नहीं चाह होती है उसकी 
मिलने की नीले सागर से